जाटों के सबसे बड़े नेता के वारिस एक-एक सीट के लिए क्यों तरसे?
अभी तक सामने आ रही जानकारियों के मुताबिक, अजित सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल को सपा-बसपा वाले गठबंधन में बमुश्किल तीन सीटें मिलेंगी, एक दौर था जब पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस परिवार की तूती बोलती थी.
ये हालात उन चरण सिंह के वारिस की है, जो भारत के प्रधानमंत्री रहे और जिन्हें किसानों का बड़ा नेता कहा जाता था. आज अजित सिंह को 'जाट लैंड' कहे जाने वाले क्षेत्र में भी एक-एक सीटों के लिए मशक्क़त करनी पड़ रही है.
राजनीतिक विश्लेषक रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "अजित सिंह पिता से मिली विरासत को बढ़ा नहीं पाए और उनके लगातार कभी इस दल और कभी उस दल के साथ समझौतों और गठबंधन ने उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है."
1979-80 में देश के प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह न सिर्फ़ स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल हुए नेताओं में से थे बल्कि उनका शुमार किसानों के बड़े लीडर के तौर पर होता था. भूमि सुधारों में किए गए अपने कार्यों के लिए उन्हें उन नेताओं में गिना जाता है जिन्होंने गांधीवादी अर्थनीति को देश में लागू करने की सफ़ल कोशिश की.
चरण सिंह का मजगर - मुसलमान, जाट, गूर्जर और राजपूत वोटरों का गठबंधन महज एक जाति या समूह तक सीमित नहीं था. लेकिन उनकी मौत के बाद जिन लोगों में उनकी विरासत बंटी उनमें मुलायम सिंह यादव को भी गिना जाता है जिनके साथ यादवों और मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग चला गया.
रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "अजित सिंह महज जाटों के नेता बनकर रह गए और उनके सर से वो ताज भी मुज़फ्फ़रनगर और शामली में हुए मुस्लिम-जाट दंगों के बाद चले गए जिसमें उन्होंने खुलकर कोई भूमिका नहीं निभाई".
2013 में इलाक़े में हुए दंगो ने 'मोदी-वेव' को और हवा दी. कांग्रेस के साथ समझौते में चुनाव लड़ रहे अजित सिंह पिछले लोकसभा चुनावों में न सिर्फ़ बागपत से अपनी सीट हार गए बल्कि उनके दल के छह उम्मीदवारों में से एक भी संसद में न पहुंच सका.
अपने तक़रीबन 25 साल के लंबे राजनीतिक करियर में अजित सिंह, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से लेकर, बीजेपी, बीएसपी और बीजेपी सभी के साथ रह चुके हैं.
इसी दौर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से संजीव बालियान जैसे जाट नेता उभरे, जो बीजेपी के साथ हैं. संजीव बालियान को तो नरेंद्र मोदी के पहले मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री की जगह भी मिली.
इसे जाटों के बीच अपना नेता खड़ा करने की बीजेपी की कोशिश के तौर पर देखा गया. वो समुदाय जहां का एकछत्र नेता एक समय अजित सिंह को माना जाता था.
राष्ट्रीय जाट संरक्षण समिति के अध्यक्ष विपिन सिंह बालियान कहते हैं कि मुज़फ्फरनगर-शामली के दंगों के बाद से समुदाय की ओर से मुस्लिम-जाट की तैयार हो गई खाई को पाटने की पूरी कोशिश हुई है और उसका नतीजा कैराना में साफ़ दिखने को मिला जहां तबस्सुम हसन की भारी विजय हुई.
कहा तो यहां तक जाता है कि सपा-बसपा गठबंधन की जो ये रूपरेखा आज दिख रही है उसकी सोच उस समय ही उभरी थी.
विपिन सिंह बालियान कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में कम-से-कम 18 सीटें ऐसी हैं जहां जाटों के वोट का ज़बरदस्त प्रभाव है और ये बात अखिलेश और मायावती को भी समझनी होगी कि उन्हें यहां अजित सिंह की ज़रूरत होगी क्योंकि वही हमारे सबसे बड़े नेता हैं.
रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गठबंधन को जाट वोटों की ज़रूरत पड़ेगी क्योंकि यहां सिर्फ़ पिछड़ों और दलितों के वोटों के सहारे सीटें नहीं जीती जा सकती हैं.
"इस क्षेत्र में कांग्रेस का उतना जनाधार नहीं है, अजित सिंह शायद बीजेपी के साथ न जाएं क्योंकि उन्हें लगता है कि इस बार लोगों की केंद्र में सत्ता में मौजूद मोदी और राज्य की योगी आदित्यनाथ की सरकार से नाराज़गी है. साथ ही उन्हें ये भी पता है कि सिर्फ़ एक समुदाय यानी जाटों के वोटों के बल पर वो चुनाव नहीं जीत सकते तो एसपी-बीएसपी गठबंधन के साथ जाना उनकी भी मजबूरी है," त्रिपाठी कहते हैं.
गठबंधन में तय फार्मूले के मुताबिक़ प्रदेश की 80 सीटों में से एसपी 38 सीटों पर लडेगी जबकि बीएसपी के खाते में भी इतनी ही सीटें आई हैं. गठबंधन ने रायबरेली और अमेठी से उम्मीदवार न उतारने का भी ऐलान किया है. बाक़ी दो सीटें दोनों दलों ने समान विचारधारा वाले दलों के लिए छोड़ दिया है. गठबंधन ने ये भी फ़ैसला किया है कि वो रायबरेली और अमेठी में, जिन्हें कांग्रेस की पारंपरिक सीट माना जाता है, अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगी.
मतलब सीधे तौर पर देखा जाए तो दो ही ऐसी सीटें बची हैं जिन्हें समझौते के तहत किसी और दल को दिया जा सकता है. या फिर एसपी और बीएसपी अपने कोटे की सीटें किसी दल को चाहे तो दें.
लेकिन इस मामले में अबतक सीधे तौर पर ना नहीं हुई और कहा जा रहा है कि हो सकता है कि अखिलेश अपने खाते में से कुछ सीटें आरएलडी को दे दें.
ये हालात उन चरण सिंह के वारिस की है, जो भारत के प्रधानमंत्री रहे और जिन्हें किसानों का बड़ा नेता कहा जाता था. आज अजित सिंह को 'जाट लैंड' कहे जाने वाले क्षेत्र में भी एक-एक सीटों के लिए मशक्क़त करनी पड़ रही है.
राजनीतिक विश्लेषक रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "अजित सिंह पिता से मिली विरासत को बढ़ा नहीं पाए और उनके लगातार कभी इस दल और कभी उस दल के साथ समझौतों और गठबंधन ने उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है."
1979-80 में देश के प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह न सिर्फ़ स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल हुए नेताओं में से थे बल्कि उनका शुमार किसानों के बड़े लीडर के तौर पर होता था. भूमि सुधारों में किए गए अपने कार्यों के लिए उन्हें उन नेताओं में गिना जाता है जिन्होंने गांधीवादी अर्थनीति को देश में लागू करने की सफ़ल कोशिश की.
चरण सिंह का मजगर - मुसलमान, जाट, गूर्जर और राजपूत वोटरों का गठबंधन महज एक जाति या समूह तक सीमित नहीं था. लेकिन उनकी मौत के बाद जिन लोगों में उनकी विरासत बंटी उनमें मुलायम सिंह यादव को भी गिना जाता है जिनके साथ यादवों और मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग चला गया.
रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, "अजित सिंह महज जाटों के नेता बनकर रह गए और उनके सर से वो ताज भी मुज़फ्फ़रनगर और शामली में हुए मुस्लिम-जाट दंगों के बाद चले गए जिसमें उन्होंने खुलकर कोई भूमिका नहीं निभाई".
2013 में इलाक़े में हुए दंगो ने 'मोदी-वेव' को और हवा दी. कांग्रेस के साथ समझौते में चुनाव लड़ रहे अजित सिंह पिछले लोकसभा चुनावों में न सिर्फ़ बागपत से अपनी सीट हार गए बल्कि उनके दल के छह उम्मीदवारों में से एक भी संसद में न पहुंच सका.
अपने तक़रीबन 25 साल के लंबे राजनीतिक करियर में अजित सिंह, मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से लेकर, बीजेपी, बीएसपी और बीजेपी सभी के साथ रह चुके हैं.
इसी दौर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से संजीव बालियान जैसे जाट नेता उभरे, जो बीजेपी के साथ हैं. संजीव बालियान को तो नरेंद्र मोदी के पहले मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री की जगह भी मिली.
इसे जाटों के बीच अपना नेता खड़ा करने की बीजेपी की कोशिश के तौर पर देखा गया. वो समुदाय जहां का एकछत्र नेता एक समय अजित सिंह को माना जाता था.
राष्ट्रीय जाट संरक्षण समिति के अध्यक्ष विपिन सिंह बालियान कहते हैं कि मुज़फ्फरनगर-शामली के दंगों के बाद से समुदाय की ओर से मुस्लिम-जाट की तैयार हो गई खाई को पाटने की पूरी कोशिश हुई है और उसका नतीजा कैराना में साफ़ दिखने को मिला जहां तबस्सुम हसन की भारी विजय हुई.
कहा तो यहां तक जाता है कि सपा-बसपा गठबंधन की जो ये रूपरेखा आज दिख रही है उसकी सोच उस समय ही उभरी थी.
विपिन सिंह बालियान कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में कम-से-कम 18 सीटें ऐसी हैं जहां जाटों के वोट का ज़बरदस्त प्रभाव है और ये बात अखिलेश और मायावती को भी समझनी होगी कि उन्हें यहां अजित सिंह की ज़रूरत होगी क्योंकि वही हमारे सबसे बड़े नेता हैं.
रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गठबंधन को जाट वोटों की ज़रूरत पड़ेगी क्योंकि यहां सिर्फ़ पिछड़ों और दलितों के वोटों के सहारे सीटें नहीं जीती जा सकती हैं.
"इस क्षेत्र में कांग्रेस का उतना जनाधार नहीं है, अजित सिंह शायद बीजेपी के साथ न जाएं क्योंकि उन्हें लगता है कि इस बार लोगों की केंद्र में सत्ता में मौजूद मोदी और राज्य की योगी आदित्यनाथ की सरकार से नाराज़गी है. साथ ही उन्हें ये भी पता है कि सिर्फ़ एक समुदाय यानी जाटों के वोटों के बल पर वो चुनाव नहीं जीत सकते तो एसपी-बीएसपी गठबंधन के साथ जाना उनकी भी मजबूरी है," त्रिपाठी कहते हैं.
गठबंधन में तय फार्मूले के मुताबिक़ प्रदेश की 80 सीटों में से एसपी 38 सीटों पर लडेगी जबकि बीएसपी के खाते में भी इतनी ही सीटें आई हैं. गठबंधन ने रायबरेली और अमेठी से उम्मीदवार न उतारने का भी ऐलान किया है. बाक़ी दो सीटें दोनों दलों ने समान विचारधारा वाले दलों के लिए छोड़ दिया है. गठबंधन ने ये भी फ़ैसला किया है कि वो रायबरेली और अमेठी में, जिन्हें कांग्रेस की पारंपरिक सीट माना जाता है, अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगी.
मतलब सीधे तौर पर देखा जाए तो दो ही ऐसी सीटें बची हैं जिन्हें समझौते के तहत किसी और दल को दिया जा सकता है. या फिर एसपी और बीएसपी अपने कोटे की सीटें किसी दल को चाहे तो दें.
लेकिन इस मामले में अबतक सीधे तौर पर ना नहीं हुई और कहा जा रहा है कि हो सकता है कि अखिलेश अपने खाते में से कुछ सीटें आरएलडी को दे दें.
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